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विवाह - विमर्श

यथा वायु समाश्रित वर्तन्ते सर्वजन्तवः। तथा गृहस्थ्माश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः ।।
यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणों ज्ञानेनात्रेन चान्वहम् । ग्रहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही ।।
स सन्धार्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता । सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्थों दुर्बलेन्द्रियैः ।।

( मनुस्मृति 3, 77-79 )

भावार्थ

अर्थात जिस प्रकार समस्त जन्तु अपने जीवन के लिए वायु पर आश्रित है, उसी प्रकार सम्पूर्ण आश्रम गृहस्थाश्रम पर आधारित है। क्योकि गृहस्थ ज्ञान तथा अन्न से अन्य तीनों आश्रमों की सहायता करता है। अतः गृहस्थ तीनों आश्रमों की अपेक्षा ज्येष्ठ-श्रेष्ठ है। दुर्बलेन्द्रिय व्यक्ति इसको धारण नहीं कर सकते। स्पष्ट है कि परिणय सामाजिक सक्रियताओं का केन्द्रीय स्थल है।

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