
विवाह - विमर्श
यथा वायुं समाश्रित वर्तन्ते सर्वजन्तवः । तथा गृहस्थ्माश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः ।।
यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणों ज्ञानेनात्रेन चान्वहम् । ग्रहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही ।।
स सन्धार्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता । सुख चेहेच्छता नित्यं योऽधार्थी दुर्बलेन्द्रियैः ।।
( मनुस्मृति 3, 77-79 )
भावार्थ
अर्थात जिस प्रकार समस्त जन्तु अपने जीवन के लिए वायु पर आश्रित है, उसी प्रकार सम्पूर्ण आश्रम गृहस्थाश्रम पर आधारित हैं। क्योकि गृहस्थ ज्ञान तथा अन्न से अन्य तीनों आश्रमों की सहायता करता है। अतः गृहस्थ तीनों आश्रमों की अपेक्षा ज्येष्ठ श्रेष्ठ है। दुर्बलेन्द्रिय व्यक्ति इसको धारण नही कर सकते। स्पष्ट है कि परिणय सामाजिक सक्रियताओं का केन्द्रीय स्थल है।
कुंडली मिलान
विवाह - अनुकूलता (विवाह - मेलापक)
(क) गृहस्थाश्रम की गरिमा: धर्मसूत्र के व्याख्याता हरदत्त के अनुसार
यस्तेऽड्कुशो वसुदानो वृहत्रिन्द हिरण्मयः। तेन जनीयते जायां महां घेहि शचीपते ।।
समस्त वेद, शास्त्र, इतिहास और पुराणों में प्रमुख रूप से गृहस्थाश्रम के धर्म कत्तर्वव्य निरूपित है। समस्त आचार्य गृहस्थाश्रम को केन्द्रीय मानते हैं। इसके निर्वाह मे असमर्थ पुरुष के लिए इतर आश्रमों की व्यवस्था है।
सर्वेषु वेदशास्त्रेतिहासपुराणेषु गृहस्थधर्मा एवाग्निहोत्रादयः प्राध्येण विधीयन्ते। ततः सर्व एवाचार्या गार्हस्थ्स्यैकाश्रम्यं प्राधान्यं मन्यन्ते तत्राशक्तानामित्राश्रमधर्मा विधीयन्ते।
वैदिक संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यकों से लेकर आज तक इस आश्रम में प्रवेश सामाजिकता का मूल माना जाता है। यह आश्रम पत्नी के बिना असम्भव है (विष्णुधर्मोत्तर)। पराशर के अनुसार पुरूष गृह का स्वामी होने से गृहस्थ नहीं होता, अपितु भार्यायुक्त होने पर ही गृहस्थ कहलाता है।
न गृहण गृहस्यः स्याद् भार्यया कथ्यते गृही।
(बृहत्पराशरस्मृति 6.01)
मनुष्य के व्यक्तिव का प्रसार दो दिशाओंमें होता है- पदार्थमयजगत् और सूक्ष्म संवेदना समन्वित जगत् । विचित्र विडम्बना हैकि भौतिक स्तर पर मानव, विजय की जितनी ध्वजाए फहराता आ रहा है, भावना के स्तर पर पराजय की उससे अधिक कलंक-कथाएँ रचता रहा है।बाह्य जगत् में निरन्तर समृद्धि, ऐश्वर्य, वैभव और आनन्दोल्लास से घिरा मनुष्य आन्तरीक जगत में अजित एकान्त अपराजय निवार्सन की नियति प्राप्त कर रहा है।
यौनाकर्षण जब सामाजिक आचारसंहिता का आचमन करता है तब परिणय प्रारूपित होता है। परिणय वह भाव है जिसमें सुख-दुःख, विषाद प्रसाद, उत्कर्ष-अपकर्ष की चटुल तरंगे समाहित है।
विवाह से पूर्व जीवन साथी के विषय में अनेकानेक प्रश्न मस्तिष्क को आन्दोलित, आलोड़ित एवंविलोड़ित करते हैं। इस सन्दर्भ में ज्योतिष की भूमिका अत्यन्त प्रखर है। भारतीय विश्वास के अनुसार सुखी और समृद्ध दाम्पत्य के लिए विधिवत् वर-वधु चयन आवश्यक है। जन्मांगों के समुचित विवेचन से जीवनसाथी, दाम्पत्य संपन्नता, उपलब्धिया, संघटन विघटन आदि तथ्यों का प्रामाणिक उद्घाटन होता है। इस हेतु प्राचीन ऋषि-मुनियों ने भावी वर-वधु के सुखद दाम्पत्य जीवन को सुनिश्चित करने के लिए शोध के आधार पर कुण्डली मेलापक की व्यवस्था करी है जिसमें नाना प्रकार की विधियाँ सम्मिलित हैं, उनमें से कुछ ग्रलिखित है।
शोधपरक अभिनव मेलापक विधान
विवाह हेतु उपस्थित जन्मांगों का मेलापक करते हुए सर्वप्रथम वर-वधु की आयु-स्वभाव,प्रवृत्ति. मानसिक शारीरिक गठन, चरित्र में मेलापक सम्पन्न करना उचित है इस हेतु अनेक शास्त्रोक्त विधियां उपलब्ध है, जिनमें से कुछ अग्रलिखित है:-:
- (1) लग्न मेलापक
- (2) नक्षत्र मेलापक
- (3) ग्रह-मेलापक
(1) लग्न मेलापक: वर-वधु लग्न के पारस्परिक सम्बन्धों पर विचार करना अति अनिवार्य है। प्रायः समान तत्त्व की लग्न सुखद दाम्पत्य की सूचक होती है। यदि लग्न एक दूसरे से समसप्तक है, तो भी सुखद परिणय सम्पन्न होगा। समान लग्न होना तो सर्वश्रेष्ठ वैवाहिक सुख का प्रतीक है। यदि जल तत्त्व के साथ पृथ्वी तत्त्व की लग्न का वैवाहिक सम्बन्ध हो तो शुभ है परंतु जल तत्त्व के साथ अग्नि तत्त्व का जीवनसाथी दाम्पत्य जीवन में विषमता उत्पन्न करता है। वायु तत्त्व और अग्नि तत्त्व की लग्नों का सम्बन्ध भी उपयुक्त वैवाहिक जीवन की संरचना करता है। लग्न की राशि से सम्बन्धित तत्त्व के पारस्परिक सम्बन्धों का मिलान ही लग्न मेलापक कहलाता है। जिस प्रकार हम वर-कन्या की जन्म राशियों में परस्पर भिन्नता या साम्यता देखते हैं, उसी प्रकार से लग्न, जो वर-वधु के व्यक्त्वि, मानसिक संरचना तथा उनके प्राकृतिक प्रवृत्तियों,प्रतिभा, गुण, क्षमता, अक्षमता आदि को प्रदर्शित करती है, का भी मिलान करना अनिवार्य है। यदि वर-वधु की लग्नों के तत्वों में पारस्परिक सम्बन्ध अनुकूल हैं, तो वैवाहिक जीवन सुखमय होगा, भले ही उत्कृष्ट साम्य न हो । सर्वप्रथम लग्न राशियों केतत्वों पर विचार करना चाहिए।
जिस प्रकार हम वर-कन्या की जन्म राशियों में परस्पर भिन्नता या साम्यता देखते हैं, उसी प्रकार से लग्न, जो वर-वधु के व्यक्त्वि, मानसिक संरचना तथा उनके प्राकृतिक प्रवृत्तियों,प्रतिभा, गुण, क्षमता, अक्षमता आदि को प्रदर्शित करती है, का भी मिलान करना अनिवार्य है। यदि वर-वधु की लग्नों के तत्वों में पारस्परिक सम्बन्ध अनुकूल हैं, तो वैवाहिक जीवन सुखमय होगा, भले ही उत्कृष्ट साम्य न हो । सर्वप्रथम लग्न राशियों केतत्वों पर विचार करना चाहिए।
- अग्नि तत्व की राशियाँ : - मेष, सिंह, धनु
- पृथ्वी तत्व की राशियाँ : - वृषभ, कन्या, मकर
- वायु तत्व की राशियाँ : - मिथुन, तुला, कुम्भ
- जल तत्व की राशियाँ : - कर्क, वृश्चिक, मीन
नक्षत्र मेलापक: भावी वर-वधु के जन्मांगों का मिलान करते हुए यह विधि सर्वाधिक प्रयुक्त होती है। इसमें 36गुणों का उल्लेख होता है। यदि दोनों जन्मांगों में 18 गुण भी साम्य स्थापित करें तो वैवाहिक अनुमति प्राप्त हो जाती है। मान्यतानुसार सुखद दाम्पत्य हेतु न्यूनतम 18 गुणों में साम्य आवश्यक है।
पृथ्वी के सर्वाधिक निकटस्थ होने के कारण चन्द्र को ज्योतिष मर्मज्ञों ने अत्यन्त महत्व प्रदान किया है।सरस, सफल, सार्थक, उतरदायी और संतुष्ट दाम्पत्य के यापन हेतु पति-पत्नी में पारस्परिक मानसिक सौमनस्य-सामंजस्य अपेक्षित है। वैचारिक साम्य असंतोषप्रद वैवाहिक स्थितियों का परिशमन करता है। आज की परमुखापेक्षी परिस्थितियों में जब सम्बन्धों में औपचारिकता का अतिशय सम्मिश्रण हो गया है,इस मानसिकमधुरता की आवश्यकता अत्यधिक है।
नक्षत्र मेलापक आठ भागों में विभक्त है और प्रत्येक भाग को अंक प्रदान किये गये हैं।

- वर्ण - 1 अंक
- वश्य - 2 अंक
- तारा - 3 अंक
- योनि - 4 अंक
- ग्रहमैत्री - 5 अंक
- गण - 6 अंक
- भकूट - 7 अंक
- नाड़ी - 8 अंक
वर्ण कूट: ऋषियों ने कर्माचारित वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत समाज को चार वर्षों में विभक्त किया है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद। मीन, कर्क, वृश्चिक राशि ब्राह्मण वर्ण का, सिंह धनु, मेष राशि क्षत्रिय वर्ण का वृष, कन्या, मकर वैश्य वर्ण का एवं मिथुन, तुला कुम्भ राशि शुद्र वर्ण का परिचय प्रदान करती है। वर कन्या का समान वर्णिय होना अथवा वर का अपेक्षाकृत उच्च वर्णीय होना श्रेष्ठ माना जाता है। इस कूट को 1 अंक प्रदान किया गया है
वश्य कूट: इसे 2अंक प्रदान किये गये हैं। जन्मांगों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वर-वधु में परस्पर आकर्षण की सघनता कितनी है। मेष राशि सिंह और वृश्चिक को,वृष राशि कर्क और तुला को, मिथुन को,तुला राशि मकर और कन्या को,वृश्चिक राशि कर्क को, धनु राशि मीन को, मकर राशि मेष और कुम्भ को,कुम्भ राशि मेष
तारा या दिन कूट: इसे 3 अंक प्रदान किये गये हैं। कन्या के नक्षत्र से वर नक्षत्र तक गिनकर जो अंक प्राप्त हो उसे 9 से भाग दें, शेष संख्या 2,4,6,80 हो तो श्रेष्ठ माना जाता है।
योनि कूट: इसे 4 अंक प्रदान किये गये हैं। काम मनोवृत्ति समय और सामंजस्य ज्ञान हेतु योनिसाम्य आवश्यक है। समान यानि 4. मित्र योनि 3, समयोनि 2. मिन्न योनि । व शुत्र योनि ० अंक प्राप्त करते है। उत्तराषाढ़ के चतुर्थ चरण को अभिजित संज्ञा देते हुए आचार्यों ने नक्षत्र संख्या 28 मान कर इसे 14 योनियों (अश्व, गज, मेष, सर्प, श्वान,मार्जार, मूषक, व्याघ्र, मृग, वानर, नकुल सिंह) में विभक्त किया है। समान योनि शुभ,मित्र व भिन्न योनि ग्राह्य तथा शत्रु सर्वदा वर्ज्य है।
ग्रहमैत्री कूट: इससे वर कन्या की जन्मराशि के अधिपतियों की नैसर्गिक मैत्री पर विचार होता है।इनमें सामंजस्य होने पर दाम्पत्य जीवन सुखमय व्यतीत होता है, यदि वर-वधु के जन्मराशि अधिपतियों में कटुता शत्रुता हो तो उनका वैवाहिक जीवन कष्टों का भंडार बन जाता है एवं उनमें वैचारिक मतभेद,क्लेश और द्वेष बना रहता है। यदि जन्मांग मेलापक में गुणसाम्य न्यून हो और जन्मराशि अधिपतियों में पारपरिक शत्रुता भी हो तो दम्पत्ति आजीवन क्रुर अपरिचय का दंश भोगते हैं। अतः विचार करते समय नैसर्गिक मैत्री पर ही ध्यान देना चाहिए,तात्कालिक मैत्री पर नही। यदि ग्रह मैत्री का अभाव हो तो नवांश चक्र में संस्थित चन्द्र की राशि से गणना करनी चाहिए। वर- कन्या के चन्द्रमा के नवांश पतियों में मैत्री होने पर ग्रहमैत्री दोष निरस्त हो जाता है इसे 5 अंक प्रदान किये गये हैं।
गण कूट: समस्त नक्षत्र देव, मनुष्य तथा राक्षस तीन गणों में विभक्त है। इसमें जातक केस्वभाव की अभिव्यक्ति होती है। देवगण के नक्षत्र में उत्पन्न जातक उद्दात, मनुष्य गण के नक्षत्र में उत्पन्न परिश्रमी-मेधावी, महत्त्वाकांक्षी, व्यवहार कुशल एवं राक्षस गण में उत्पन्न जातक क्रूर दुष्ट होता है। यदि वर का गण स्त्री के गण से श्रेष्ठ हो तो यह श्रेयस्कर होता है।अतः विपरीत गणों के जातकों में दाम्पत्य बन्धन होने पर जीवन में पग-पग पर प्रतिरोध प्रकट होता है। समान गणों में अथवा मनुष्य और देवगण में विवाह उत्तम है। किन्तु राक्षस गण का विवाह राक्षस गण में ही होना चाहिए। नक्षत्रों का गणों में विभाजन अग्रांकित है।
- (क) देवगण: अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, स्वाति, अनुराधा,श्रवण, रेवती।
- (ख) मनुष्य गण: भरणी, रोहिणी, आर्द्रा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी,पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद।
- (ग) राक्षस गण: कृत्तिका, अश्लेषा, मघा, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल, धनिष्ठा, शतभिषा।
वर-कन्या के स्वभाव और अंतर्जगत को समझने में सक्षम होने के कारण गण कूट को 6 अंक प्रदान किए गए हैं।
भकुट कूट: इसे 7 अंक प्रदान किये गये है इससे वर-कन्या की जन्म राशियाँ की पारस्परिक स्थिति पर आलोक पड़ता है। वर-कन्या की जन्म राशियों की परस्पर द्वितीय-द्वादश, षष्ट अष्टम, पंचम-नवम नही होना चाहिए। परस्पर तृतीय एकादश, चतुर्थ दशम, सप्तम एकाभावस्थ होने पर परिणय उत्तम होता है। जन्म राशि की षडाष्टक (6/8) सर्वाधिक निकृष्ट होती है। इसका सम्बन्ध स्वास्थ्य और आयुष्य से है। द्वितीय द्वादशस्थ राशियाँ जर्जर आर्थिक स्थिति को संकेतित करती है। पंचम नवमस्थ राशियों अल्प संतति सुख व क्षीण मानसिक तारतम्य प्रकट करती है।
- अग्नि तत्व:मेष, सिंह, धनु।
- पृथ्वी तत्व: वृष, कन्या, मकर।
- वायु तत्व: मिथुन, तुला, कुम्भ।
- जल तत्व: कर्क, वृश्चिक, मीन।
- वर-कन्या की जन्मराशि समान तत्वीय होने पर पारस्परिक सहमति का अभाव होता है। फलतः जीवन असहमतियों का आगार हो जाता है। यदि पति मेष राशीय और पत्नी सिंह अथवा धनु राशीय हो तो विवादों एवं संघर्षों की संभावना परिवर्द्धित होती है, क्योंकि ये राशियाँ अग्नि तत्वीय है।
- नवम पंचम राशियों का संपर्क भी अशुभ है क्यों धर्म के प्रति जड़ता की सीमा तक दृढ़ता वैवाहिक जीवन के लिए आवश्यक रागानुाराग का खण्डन करती है। षडाष्टक (6/8) संस्थित राशियों के समअधिपति होने पर भकूट दोष महत्त्वहीन हो जाता है। यथा मेष और वृश्चिक राशियाँ षडाष्टक होने के पश्वात भी भकूट दोष विहीन है, क्योंकि दोनों राशियों का अधिपति मंगल है। इसी प्रकार तुला-वृष (राशि स्वामी शुक्र), मकर-कुम्म (राशि स्वामी शनि) भी इस दोष से विमुक्त है। यदि वर-कन्या के जन्मांगों में नाड़ी दोष नहीं है तो यह दोष निर्मूल्य हो जाता है।
नाड़ी कूट: समस्त नक्षत्रों को 3 श्रेणियों में विभक्त करने वाली नाड़ियाँ आदि, मध्य और अन्त्य क्रमशः यात, कफ तथा पित्त को अभिसूचित करती है। समस्त शारीरिक व्याधियों के मूल में वात, कफ, पित्तपरक असंतुलन ही होता है। वर-कन्या की समनाड़ी होने पर परिणय सुखमय नहीं होता। भिन्न नाड़ी होने पर उनकी संतति में कफ पित्त का अनुपात उचित रहता है। समनाड़ी बने दम्पतियों की आंशिक अस्वस्थ, प्रायः मानसिक रूपेण अविकसित होती है। ऐसे बच्चों में मानसिक दोषों की संभावना अधिक होती है। नाड़ी मनुष्य के दैहिक स्वास्थ्य सूत्र का दर्पण है।
यदि दम्पत्ति आदि नाड़ी सदर्भित है तो दांपत्य अनेक संकटों से आपन्न होता है तथा उनकी स्वास्थ्य क्षति होती है, मध्य नाड़ी संदर्भित है होने पर एक का देहावसान संभव है, अन्त्य नाड़ी साम्य होते हुए भी नाड़ी दोष नहीं होता है। यदि वर-कन्या के जन्म नक्षत्र में चरण भिन्न हो, तो विवाह की अनुमति दी जाती है तथा नाड़ी दोष नही माना जाता है।
रज्जु कूट: इसके द्वारा दाम्पत्य सुखापभोग की अवधि अर्थात वैवाहिक जीवन का आयुषक्रम ज्ञात होता है। रज्जु - कूट की अनियमितता दाम्पत्य को अल्पायु करती है। 27 नक्षत्र 5 रज्जूओं में विभक्त हैः-
- (क) पद रज्जु:अश्विनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल, रेवती।
- (ख) कटि रज्जु:भरणी, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तर भाद्रपद।
- (ग) नाभि (उदर) रज्जु: कृत्तिका, पुर्नवसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा,उत्तराषाढ़ा, पूर्व भाद्रपद।
- (घ) कंठ रज्जु: रोहिणी, आर्या, हस्त, स्वाति, श्रवण, शतभिषा।
- (ड) शिरो रज्जु:धनिष्ठा, चित्रा, मृगशिरा।
वर-कन्या के जन्म नक्षत्र समान रज्जु के नहीं होने चाहिए। दोनों के जन्म नक्षत्र पद रज्जु में होने पर वे आजीवन निरर्थक भटकते रहेंगे। यदि वर-कन्या के जन्मनक्षत्र कटिरज्जु में स्थित हो, तो विपन्नता का प्रादुर्भाव होता है तथ आर्थिक कष्ट सदा बना रहता है। यदि वर-कन्या के जन्मांगों के मिलान में दोनों के नक्षत्र या उदररज्जु में संस्थित हो, तो संतति सुख अभाव होता है। शिरोरज्जु में होने पर पति की मृत्यु संभावित है। दाम्पत्य के दीर्घायु होने के लिए पति-पत्नी के जन्म नक्षत्रों का भिन्न रज्जु होना आवश्यक है।
वेध कूट: वेध का अर्थ है अवरोध। कुछ विशिष्ट नक्षत्रों के समक्ष संकटापत्र परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं। अग्रांकित नक्षत्र-युग्म पारस्परिक अवरोध स्थापित करते हैं:
- 1.अश्विनी – ज्येष्ठा
- 2. भरणी – अनुराधा
- 3.कृतिका – विशाखा
- 4.पुष्य – पूर्वाषाढ़
- 8.अशलेषा – मूल
- 9.मघा – रेवती
- 10.पूर्वाफाल्गुनी – उत्तराभाद्रपद
- 11.उत्तराफाल्गुनी – पूर्वाभाद्रपद
- 12.हस्त – उत्तराभाद्रपद
- 13.मृगशिरा – धनिष्ठा
यदि वर का जन्म ऐसे विरोधी नक्षत्रों में हो तो वैवाहिक जीवन अनियमितताओं, बाधाओं और परेशानियों से भरा हो सकता है।
स्त्री दीर्घ कूट: मेरे विचारानुसार इस कूट पर ध्यान देना अप्रासंगिक है, क्योंकि वर का नक्षत्र, कन्या के नक्षत्र से किस स्थान पर स्थित हो इस विषय में भीषण मतवैभिन्य है। कोई कहता है वर का नक्षत्र कन्या के नक्षत्र से सातवाँ हो, कोई तेरहवाँ, अठारहवाँ,सत्ताइसवाँ, उचित मानता है। अतः यह कूट निष्प्रयोजन है।
महेन्द्र कूट: वर का नक्षत्र कन्या के नक्षत्र से चौथा, सातवाँ, दसवाँ, तेरहवाँ, सोलहवाँ, उन्नीसवाँ, बाइसवाँ अथवा पच्चीसवाँ हो तो विवाह उत्तम रहता है, किन्तु मैं इस कूट को महत्त्वहीन मानता हूँ।
अस्तु, मनीषियों - शास्त्रज्ञों द्वारा निर्दिष्ट 12 कूटों के सम्यक् प्रयोग से दाम्पत्बहुमुखी समृद्धि प्राप्त कर सकता है। समान जन्मनक्षत्र और समान जन्मराशि के विषय में किंचित मतभेद है किन्तु यह न्यून महत्त्व का विषय है। समान जन्म राशि में नक्षत्र वैभिन्न्य के आधार पर और समान नक्षत्र में पद वैभिन्य के आधार पर विवाह की अनुमति दी जा सकती है। किन्त इन स्थितियों में नाड़ी दोष विद्यमान रहता है। नक्षत्र वैभिन्न्य के आधार पर और समान नक्षत्र में पद वैभिन्य के आधार पर विवाह की अनुमति दी जा सकती है। किन्तु इन स्थितियों में नाड़ी दोष विद्यमान रहता है। यदि नक्षत्र के पद पृथक हों तो यह दोष निरस्त हो जाता है।
अनिष्टकर नक्षत्र
खेद का विषय है कि इस महत्त्वपूर्ण विषय का ज्ञान पण्डितों को अत्यल्प है। स्थिति यह है कि कुछ नक्षत्रों के कुछ पद अशुभ होते हैं। यदि कन्या या वर का जन्मनक्षत्र के उस अनिष्टकर चरण में हुआ हो, तो विवाहोपरान्त परिवार में कुछ अप्रिय घटित होता है। कुछ विशिष्ट योग निम्नलिखित हैं:
- (क) मूल नक्षत्र का प्रथम चरण - पति के पिता के लिए अनिष्ट, शेष चरण हानि रहित।
- (ख) ज्येष्ठा का प्रथम चरण - पति के अग्रज हेतु घातक अनिष्ट।
- (ग) विशाखा का प्रथम चरण - माँ के लिए घातक अनिष्ट।
- (ड) अश्लेषा और मूल के प्रथम चरण - पत्नी के माता-पिता के लिए अशुभ। पति के सन्दर्भ में अशुभ फल क्षीण।
ग्रह मेलापक
यह अत्यन्त अनिवार्य प्रक्रिया है, जिसकी उद्देश्य है दोनों जन्मांगों में ग्रहों का बहुमुखी, बहुस्तरीय अध्ययन, जिनके परिणामस्वरूप दाम्पत्य दारूण होता है अथवा हो सकता है। यथा एक जन्मांग के सप्तम भाव में मंगल शुक्र यौनोत्तेजना परिवर्द्धित करते है और बुध, बृहस्पति यौनदुर्बलता का संचार करते हैं। ऐसे अनेकानेक ग्रहयोग है जिनके परिणामस्वरूप जीवन क्लेशित्त होता है। यथा शुक्र, चन्द्र सप्तमभावस्थ हो अथवा सप्तम भाव मंगल, शनि के मध्यस्थ होकर पापकर्तरि योगग्रस्त हो अथवा शुक्र सप्तमस्थ हो और सप्तम भाव सूर्य चन्द्र के मध्य संस्थित हो तो दाम्पत्य पूर्णतः असंतोषप्रद होता है। जिस जातक के जन्मांग में ऐसा विध्वंसक योग हो, उसे इस प्रकार के जातक से विवाह करना चाहिए जिसका जन्मांग इन दुर्योगों को प्रभावहीन सिद्ध करता है।
मंगल दोष
लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादशस्थ मंगल से उत्पन्न मंगल दोष जन्मांग मेलापक के समय जन्सामान्य की प्रमुख चिन्ता होती है। इस दोष का संतुलन अनिवार्य है। मंगल किन राशियों में संस्थित है यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है। उच्चराशिस्थ, स्वाराशिस्थ व मित्रराशिस्थ मंगल कम क्रूर प्रभावी होता है। नीच राशिस्थ और शत्रु राशिस्थ मंगल प्रबल हानिकर होता है। द्वितीय, चतुर्थ और द्वावशस्थ की अपेक्षा लग्न, सप्तम तथा अष्टम भावस्थ मंगल अधिक क्षतिकारक होता है, क्योंकि पापग्रह मंगल लग्न, सप्तम और अष्टमस्थ होकर दाम्पत्य आनन्द को ध्वस्त करता है। वर एवं वधु की कुण्डली में मंगल दोष उपस्थित होने पर मेलापक अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना चाहिए।
- Mars in exalted, own, or friendly signs is less malefic.
- Mars in debilitated or enemy signs is highly detrimental.
- Mars in the 1st, 7th, and 8th house When Mangal Dosha is present in both the bride and groom’s horoscopes, horoscope matching should be conducted with extreme caution to ensure compatibility.

भाव मेलापक: यह मेलापक की सर्वथा अभिनव पद्धति है। प्रचुर गुण साम्य और ग्रह-सामंजस्य के पश्चात भी भावसाम्य न होने पर दाम्पत्य पर घातक गुण प्रभाव पड़ता है। प्रायः लग्न मेलापक, ग्रह- मेलापक और भाव मेलापक होने पर नक्षत्र मेलापक का अभाव भी वैवाहिक जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव प्रक्षेपित नही कर पाता। वैवाहिक जीवन के सुख और दीर्घायुष्य के लिए भाव-मेलापक आवश्यक है। यह विडम्बना ही है कि हमारे यहाँ सर्वाधिक महत्तव नक्षत्र मेलापक को ही प्रदान किया जाता है।
प्रायः ज्योतिर्विद लग्न मेलापक, भाव मेलापक और ग्रह-मेलापक से अनभिज्ञ होते हैं। नक्षत्र मेलापक के आधार पर वह अति अनुकूल सम्बन्धों को भी एक-दूसरे के प्रतिकूल घोषित करने में किंचित भी संकोच नहीं करते। जोकि ज्योतिष सम्मत नहीं है।
वर-कन्या के जन्मांगों में मंगलीक दोष का निस्तीकरण:सर्वप्रथम यह निश्चित करना भी ज्योतिष ज्ञान की एक प्रक्रिया है कि वर या कन्या के जन्मांग में कुज दोष विद्यमान है या नहीं। यदि कुज दोष है भी तो वह प्रभावशाली है अथवा नहीं ।यदि कुज दोष प्रभावशाली है तो उसका प्रभाव कम है, अधिक है या अत्यधिक है। यह निर्णय होने के उपरान्त संभावति पति अथवा पत्नी के जन्मांगों में भी मंगली दोष के प्रभाव का विचार आवश्यक है। तत्पश्चात् यह निर्णय करना चाहिए कि दोनो जन्मांगों में तुलनात्मक दृष्टि से मंगली दोष का परिहार अथवा निस्तीकरण हुआ है या नहीं ।यदि दोनों जन्मांगों में 25 प्रतिशत कुज दोष का प्रभाव एक-दूसरे से कम या अधिक है तो विवाह की संस्तुति कर देनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं है और कुजदोष संतुलित नहीं हो रहा है तो विवाह की अनुमति नही प्रदान करनी चाहिए। शास्त्रानुसार वर-वधु के उत्तम दामपत्य सुख के निर्धारण हेतु ज्योतिष में कण्डली मेलापक की व्यवस्था की गई।जिससे अनिष्ट का निवारण कर, वर-वधु दाम्पत्य जीवन को समृद्ध एवं सफल बनाया जा सके। इस हेतु कुण्डली मेलापक की कई वैज्ञानिक विधियों का प्रचलन है। शास्त्रोक्त विधि से कुण्डली मेलापक की व्यवस्था उपलब्ध है। कुण्डली मिलान हेतु भावी वर एवं वधु का बिल्कुल ठीक जन्म तारीख, बिल्कुल ठीक जन्म समय एवं जन्म स्थान आवश्यक है।
कुण्डली मिलान की फीस 2100/-रू होगी।
